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गुरुपर्व का त्योहार हिन्दु माह के कार्तिक महीने (अक्तूबर-नवम्बर) में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन सिक्खों के धर्म के प्रर्वत्तक, गुरुनानक का जन्मोत्सव मनाया जाता है।

गुरुनानक का जीवन उनके समय में सबको दिशा दिखाता था। वे महान भविष्यदर्शी संत और रहस्यमय थे। वे बहुकृतिक कवि थे और ईश्वर की प्रशंसा में गीत गाते थे। वे शांति, प्रेम, सत्य और नवजागरण के पैगम्बर थे, वे शताब्दियों तक सर्वमान्य रहेंगे। उनके विश्वव्यापी संदेश आज भी सर्वकालिक और सत्य है जैसा कि कल था और पूरे दुनिया के सिक्ख उन धार्मिक सिद्धान्तों पर चल रहे हैं, संस्थापक के मान्यताओं पर चल रहे हैं।

भगवान के प्रशंसा में, गुरुनानक ने कहा था:

“भगवान एक है, उनका नाम सत्य है, वे सृष्टिकारक है, वे किसी से भयभीत नहीं होते, वे घृणा के परे हैं, वे अमर हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र से परे हैं, वे स्व-प्रकाशमय हैं, वे सच्चे गुरु की कृपा को समझनेवाले हैं। वे शुरु से ही सत्य हैं, वे युगों से सत्यता के प्रतीक हैं, वे हमेशा सत्य ही रहेंगें और आज भी सत्य ही हैं।”

सिक्खों का पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के शुरु में ही इन शब्दों को रखा गया है। भगवान के त्रिमुर्ति रुप पर गुरुनानक का विश्वास नहीं था और यह मानना कि भगवान मानव रुप में जन्म लेते हैं। सिक्खत्व में वे हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों को एक सूत्र में बाँधना चाहते थे। वे जाति-विभेद और उसके अनुसार कार्य-विभेद को नहीं मानते थे। एक सच्चा सिक्ख कभी भी मोक्ष और स्वर्ग प्राप्ति का प्रयास नहीं करेगा। गुरु नानक के कई मंत्रों में जो गुरु ग्रंथ साहिब के अंश हैं, भगवान का रुप प्रतिफलित होता है, भगवान का प्यार अलौकिक है।

गुरु का जीवन और काल

सिक्ख धर्म के संस्थापक, गुरु नानक का जन्म 2 नवम्बर, 1469 को पश्चिमी पंजाब के तालवांडी गाँव में हुआ था, जो लाहौर (अभी नानकाना साहिब नाम से जाना जाता है) से लगभग पैतालिस किलोमीटर दूर है।

गुरु नानक ने साधारण हिन्दु क्षत्रिय परिवार में जन्म लिया था। उनके पिता मेहता कालियन दास स्थानीय मुस्लिम संस्था में अकाउन्टेन्ट थे। वे शुरु से ही हिन्दु और मुस्लिम बच्चों के साथ खेला करते थे और जीवन के प्रति बहुत ही जिज्ञासु थे। उनका वाह्य प्रकृति संतों जैसा था और उन्हें सांसारिक माया-मोह नहीं था।

छह साल के उम्र में उन्हें गाँव के स्कूल में हिन्दी और गणित पढ़ने के लिए भेजा गया था। उन्होंने इस्लामिक साहित्य और पारसी और अरबी पढ़ी। वह असाधारण शिशु थे, वे बहुत जल्दी सिखते थे और शिक्षक से बहुत सारे प्रश्न करते थे।

तेरह साल के उम्र में, युवा नानक को परम्परागत हिन्दु प्रथा के अनुसार पवित्र धागा पहनाने का समय आया। समारोह के समय, परिवारजनों और मित्रों के समक्ष नानक पवित्र सूती धागा हिन्दु पुरोहित से पहनने से इनकार कर दिया और परिवार के लोगों को निराश किया।

जवान लोग जब घर के पशुओं के झुंड को चराने के लिए कहीं ले जाते हैं, गुरुनानक बहुत सारा समय ध्यान करने में और जो हिन्दु और मु्स्लिम धार्मिक जन जो गाँव के पास के जंगल में रहते थे उनसे आलोचना में बिताते थे। यह बात सोचकर गुरुनानक की शादी दी गई कि वह घर के कामों में रुची लेने लगेंगे। उनके लिए योग्य वधु खोजा गया। सोलह साल के उम्र में, धर्मपरायण व्यापारी की पुत्री, सुलखानी के साथ उनका विवाह हो गया। गुरुनानक ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि शादी के बाद भी उन्हें आध्यात्मिक कार्यकलाप से कोई अलग नहीं कर सकता। गुरुनानक ने खुशी-खुशी शादी की, अपने पत्नी को प्यार किया और दो पुत्र संतान हुए, 1494 में श्रीचंद और तीन साल बाद लक्ष्मी चंद।

माता-पिता ने गुरुनानक को अपने परिवार के लिए नौकरी करने के लिए समझा-बुझाकर राज़ी किया। सुल्तानपूर के राज्यपाल, दौलत खान लोदी के गोदाम में अकाउन्टेंट की नौकरी थी। गुरुनानक राजी हो गए और अपने बचपन के मित्र मरदाना के साथ, जो पेशे से संगीतकार था। गुरुनानक दिन भर काम करते थे। सुबह और देर रात तक ध्यान करते थे और मरदाना के साथ रवाब (तार का बना वाद्य यंत्र) पर स्तुति गान करते थे। यह अवधि लोगों को आकर्षित करने लगा और बहुत लोग उन दोनों के साथ शामिल होने लगे।

नानक का अवतरण

एक दिन भोर के समय गुरु नानक मरदाना के साथ बेन नदी पर नहाने गए थे। नदी में उतरने के बाद गु्रु नानक नहीं मिले और यह सूचना दी गई कि वह डूब गए है। गाँ‍व वाले उन्हें सभी जगह ढूँढे, लेकिन उनका कोई पता नहीं चल सका। गुरु नानक ईश्वर के साथ धार्मिक विचारों का आदान-प्रदान कर रहे थे। ईश्वर ने गुरु नानक के समक्ष सारा रहस्य खोल दिया और उनका ज्ञानोदय किया।

तीन दिन बाद गुरुनानक उसी स्थान से बाहर निकले जिस स्थान से वे गायब हुए थे। वे पहले के तरह के इंसान नहीं रह गए, उनके आँखों में दैवी प्रकाश थी और उनका चेहरा जाज्वल्यमान था। उन्होंने अचैतन्य से होश में आने के बाद कुछ भी नहीं कहा। उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दिया और अपना सबकुछ गरिबों में बाँट दिया। आखिरकार उन्होंने चुप्पी तोड़ी और कहा: “न कोई हिन्दु है और न कोई मुसलमान, सभी मनुष्य हैं”।

1494 में वे तीस साल के हो गए थे। उनके जीवन का दूसरा चरण शुरु हुआ, वे घूम-घूमकर भगवान का संदेश देने लगे। मरदाना को साथ लेकर लंबी यात्रा करने लगे और स्तुति के रुप में वे लोगों तक अपना संदेश पहुँचाने लगे। उन्होंनें गीत का माध्यम इसलिए चुना क्योंकि उस वक्त लोग आसानी से समझ जाते थे। वे जहाँ भी यात्रा करते थे, वे संदेश देने के लिए वहाँ के स्थानीय बोली का प्रयोग करते थे।

उन्होंने भारत के सभी उपमहाद्विपों की यात्रा की और पूर्व, पश्चिम और उत्तर में भी अपने ज्ञान को फैलाया। जहाँ भी वे गए वहाँ छोटा मठ बनाया, जो ‘मनजीस’ कहलाता था, जहाँ उनके अनुयायी स्तुति गान और ध्यान करते थे।

अपना संदेश लोगों तक पहुँचाकर अपनी पहली यात्रा खत्म कर बारह साल बाद वे वापस घर लौटे। अपनी दूसरी यात्रा वे दक्षिण, श्रीलंका के तरफ किए। वहाँ से लौटते वक्त करथारपूर (प्रभु का वासस्थान) पश्चिम में रावी नदी के तट पर डेरा जमाया। वृद्धावस्था में वे यहीं रहते थे।

उत्तर में तिब्बत की ओर उन्होंने तीसरी यात्रा की। जहाँ भी वे जाते थे हिन्दु मुस्लिम धार्मिक लोगों की तरह वेशभुषा पहनते थे, उनसे सभी पूछते थे कि वे हिन्दु है या मुस्लिम। वहाँ से लौटते वक्त पश्चिमी पंजाब के सैदपूर में वे रुके, जहाँ मुगल सम्राट बाबर ने चढ़ाई की थी। चढ़ाई के बाद के विभत्स अवस्था को देख कर मरदाना ने पूछा क्यों कुछ दोषी लोगों के लिए इतने सारे निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ता है। उन्होंने मरदाना को केले के पेड़ के नीचे खड़े रहने को कहा और कहा कि मैं थोड़ी देर के बाद आकर तुम्हारे प्रश्न का जवाब देता हूँ। केले के पेड़ के नीचे बैठे रहते हुए एक चीटीं ने उन्हें काटा। गुस्से में आकर मरदाना ने अपने पैर के पास के सारे चिटियों को मार डाला। नानक ने वापिस आकर कहा, “अब बात समझ गए हो मरदाना, क्यों दोषी के साथ निर्दोष मारे जाते हैं?

विदेशों में बहुत साल यात्रा करने के बाद उनकी उम्र भी हो गई और वे पंजाब लौट आए, अपनी पत्नी और लड़कों के साथ वे करथारपूर में रहने लगे। तीर्थयात्री दूर-दूर से आते अपने प्रभु के स्तुतिगान और धार्मिक व्याख्यान को सुनने के लिए। यहाँ उनके अनुयायी सुबह और दोपहर को एकट्ठा होते थे। वे किसी भी जाति या समाज के विभेद को नहीं मानते थे, जन्म, धर्म, लिंग किसी में कोई विभेद नहीं था। सिक्खों के सर्वसामान्य रसोईघर को लंगर कहते हैं। सभी एक साथ बैठकर खाते हैं, राजा हो या रंक।

उनके देहावसान का समय नजदीक है जानकर हिन्दु और मुस्लिम में द्वन्द्व छिड़ गया। हिन्दु जलाना चाहते थे और मुस्लिम कब्र देना चाहते थे। गुरुनानक ने यह कहकर समस्या का समाधान किया कि “आप फूलों को मेरे दोनों तरफ रखो, हिन्दु मेरे दाहिने तरफ और मुस्लिम मेरे बाईं तरफ। कल जिसका फूल ताज़ी रहेगी, वही अपने मतानुसार मेरा दाह-संस्कार करेगा’’। उन्होंने शरीर को कपड़े से ढक देने के लिए कहा और प्रार्थना करने के लिए कहा। 22 सितम्बर, 1539 को प्रभात में गुरुनानक ईश्वर के दैवी प्रकाश में लीन हो गए। जब अनुयायियों ने चादर को उठाया तो पाया कि सारे फूल ताज़े हैं। हिन्दुओं ने अपने तरफ के फूलों को जलाया और मुस्लिमों ने अपने तरफ के फूलों को दफनाया।

गुरुपर्व का समारोह

सिक्ख गुरुओं की सालगिरह गुरुपर्व के नाम से जाना जाता है, जिससे लोग बड़े ही श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। दूसरा गुरुपर्व गुरु गोविन्द सिंह का मनाया जाता है, जो पौष (दिसम्बर-जनवरी) महीने में होता है।

गुरुपर्व के पराकाष्ठा की पहचान प्रभात फेरी से होती है, गुरुद्वारा (सिक्खों का मंदिर) से प्रभात के समय से जुलूस निकलता है, शहर में चारों तरफ घुमता है शब्दगान के साथ।

तीन दिनों तक अखंड पाठ चलता है, इस दौरान गुरु ग्रंथ साहिब, धर्मग्रंथ, बिना रुके शुरु से अंत तक पढ़ा जाता है। त्योहार के दिन गुरु ग्रंथ साहिब को फूलों से सजाकर गाँव और शहरों में फेरी के साथ ले जाया जाता है। पाँच सशस्त्र सुरक्षाकर्मी, जिन्हें ‘पंच प्यारा’ कहा जाता है, फेरी का नेतृत्व करते है, ‘निशान साहिब’ (सिक्खों का झंडा) लेकर। फेरी का विशेष भाग धार्मिक गीत को वाद्द यंत्र से बजाते हैं। ननकाना साहिब में बहुत सुंदर गुरुद्वारा है और एक धार्मिक सरोवर भी है। गुरुपर्व के दिन बहुत बड़ा मेला और त्योहार का आयोजन होता है। इस दिन देश-विदेश से सिक्ख यहाँ एकत्र होते है।

विशेष अनुष्ठानों के दिन और किर्त्तन के समय लोग गुरुद्वारा जाते है। घर और गुरुद्वारा को त्योहार के दिन प्रकाश से सजाया जाता है।

गुरु दा लंगर
मुफ्त की मिठाई और लंगर (भोजन) हर संप्रदाय के लोगों में बाँटा जाता है। गुरु दा लंगर में परम्परागत मीठा आटा, घी और चीनी से बनता है जिसे कड़ा प्रसाद कहते है, बाँटा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात इस मिठाई को बनाने में है कि एक बड़े से कढ़ाई में आटे को हल्का और धीरे-धीरे परिणामस्वरुप घी में भूना जाता है। इस मिठाई को पूरा बनाते वक्त पवित्र पद्द सुनाया जाता है। पद्द सुनाना बंद होने के साथ-साथ कड़ा प्रसाद बनाने की पद्धति खत्म होती है। अब भक्तों में बाँटने के लिए तैयार है।

हर उम्र के लोग भोजन बनाने में योगदान करते हैं। मर्द, औरत, बच्चे सभी काम करते हैं, जो ‘करसेवा’ कहलाता है। यह भाईचारे का एहसास कराता है, सभी मिलकर सब्ज़ी काटते हैं, बड़े आग में खाना बनाते हैं, रोटियों के लिए अनगिनत गोले बनाते हैं। भोजन बहुत सादा होता है, दाल, उस मौसम में पाई जाने वाली सभी ताज़ी सब्ज़ियों का सब्ज़ी और गर्म रोटी। लंगर से बिना संतुष्ट हुए कोई वापिस नहीं लौटता है।

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MasterChef Sanjeev Kapoor

Chef Sanjeev Kapoor is the most celebrated face of Indian cuisine. He is Chef extraordinaire, runs a successful TV Channel FoodFood, hosted Khana Khazana cookery show on television for more than 17 years, author of 150+ best selling cookbooks, restaurateur and winner of several culinary awards. He is living his dream of making Indian cuisine the number one in the world and empowering women through power of cooking to become self sufficient. His recipe portal www.sanjeevkapoor.com is a complete cookery manual with a compendium of more than 10,000 tried & tested recipes, videos, articles, tips & trivia and a wealth of information on the art and craft of cooking in both English and Hindi.